शुक्रवार, 27 जून 2008

जिंदगी

कटते कटते कुछ इस तरह से जिंदगी बसर गई,
साथ की तलाश थी पर तनहा गुजर गई।
आँखे तो खुली थी और मै देखता था खवाब ,
उम्मीद के चिराग को हवा बुझाती चली गई ।
मुकाम की तलाश में अक्सर भटकता रहा,
हाथ में आई बाज़ी अक्सर फिसल गई।
अब जो देखता हू आईने मे चेहरा अपना,
अपनी ही शक्ल अब अजनबी सी लगने लगी।

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